
कभी महर्षि दयानंद सरस्वती ने मेवाड़ राज्य के एक मंत्री पण्डित मोहनलाल विष्णुलाल पण्ड्या को कहा था कि एक धर्म, एक भाषा व एक भावना बनाए बिना भारत का पूर्ण हित कभी संभव नहीं है । आज देश का दुर्भाग्य देखो कि हर नेता, कथित प्रबुद्ध, समाजसेवी धर्म शब्द का अर्थ न जानकर तथा मजहब-पन्थों को ही धर्म समझकर भारत को विभिन्न धर्मों वाला देश बताने लगते हैं। बिना सत्य जाने बड़े जोशीले भाषण भारत के इतिहास, संस्कृति व सभ्यता पर देने लगते हैं। यह मैकाले की शिक्षा से उत्पन्न बौद्धिक दासत्व का ही प्रभाव है। आज देश में राजनेता, समाजसेवी, धन व यश के एकछत्र सम्राट बने साधु-सन्यासी हर विषय पर उपदेश देने की अनाधिकार चेष्टा करते देखे जाते हैं। भारतीय मीडिया भी उन्हें बड़ा विशेषज्ञ मानकर खूब प्रतिष्ठित करता है और नादान बनता है। यह इस देश की विडंबना ही है।
मुझे आश्चर्य है कि जहां केवल देश में ही नहीं अपितु विश्व में विज्ञान, गणित, भूगोल, राजनीतिक शास्त्र, कृषि विज्ञान, आयुर्विज्ञान व इंजीनियरिंग की शिक्षा में एकत्व है, तब अध्यात्मक विज्ञान, जिसे आज धर्म कहा जाता है, कैसे निजी कल्पनाओं, आस्थाओं व विश्वासों की बैशाखी पर खड़ा हजारों रूपों में विखंडित हो गया है। इस विखंडन को यथार्थ समझकर कथित मानवतावादी सर्वधर्म समभाव की वकालत करते हैं। वे क्यों नहीं समझते कि धर्म भी एक गंभीर व विस्तृत विज्ञान है, जो सबके लिए सदैव एक ही है जबकि मजहबों के भेद ने मानवता को खंडित कर रखा है।
- आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक